छठि घाट पर अपने गाँव के एक अधेड़ को भीख माँगते देखता तो मेरे शिशु मन पर अनेक प्रतिक्रियाएँ होतीं। हँसी आती और उन्हें चिढ़ाने की इच्छा होती। लेकिन न जाने किस
प्रेरणा से उनका अनुकरण करने लगता। माँ मेरा आचरण देख खुशी से खिल उठती। दादी गद्गद चित्त से शाबाशी देती, झोली बनाकर प्रोत्साहित करती। व्रत करने वाली पाँच
महिलाओं से भीख माँगनी पड़ती, बात की बात में मेरी झोली छठि माता के प्रसाद से भर जाती। मन-ही-मन खुश होता। माँ की खुशी देखकर और सुख मिलता।
कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को मेरा जन्म हुआ था। कार्तिक शुक्ल षष्ठी को छठि माता का पर्व मनाया जाता। व्रत करने वाली औरतें फल और पकवान से अपना दउरा
सजाकर अपने घर के छोटे-बड़े सदस्यों के साथ सूर्यास्त के कुछ पहले ही गाँव की छोटी नदी के निश्चित घाट 'लँहुरी' पर छठि के गीत गाती एकत्र हो जातीं। नदी की
मिट्टी से वे स्वयं छठि मैया की रूप-रचना करतीं, उसे नानाविध सँवारतीं, घी का दीप जलातीं और अस्त होते सूर्य को दूध और जल से पाँच-पाँच अर्घ्य निवेदित करतीं।
गीत गाते कुछ देर घाट अगोरा जाता। चौबाइन गीत कढ़ातीं, 'कलपी कलपी बोलेली छठिअ माता, मोरे घाटे दुनिया उपजि गैली हो।' छठि माता विलाप-स्वर में कहती हैं कि मेरे
घाट पर दूब उग आई है। उन्हें आश्वासन दिया जाता है कि बेटा सकुशल रहा तो आपकी शोभा बिगड़ने न देगा। गीत में आगे अर्घ्य जूठा करने वाले सुग्गे की कहानी चलती।
दूसरे दिन बाल रवि को दूसरा अर्घ्य निवेदित करके छठि माता का प्रसाद ग्रहण करना पड़ता। मुझे शुरू में इस पर्व से यह शिकायत रही कि इससे अंतरंग सम्बंध होने के
कारण मुझे अपने जन्म दिन को बासी मुँह भीख माँगनी पड़ती। यह सिलसिला काफी समय तक चला यानी माँ के पूरे जीवन-काल तक, अपने गाँव से महानगर कलकत्ता पहुँचने के बहुत
समय बाद तक। शुरू में अड़ोस-पड़ोस के हमउम्र बच्चों का वर्षगाँठ-समारोह देखता तो अपनी नियति पर खीज उठता। मगर माँ के हठ के चलते झोली बनाकर परिचित-अपरिचित से भीख
माँगनी पड़ती। व्रतधारिणी महिलाएँ आशीर्वाद से मेरी झोली भर देतीं। माँ का हृदय मेरे अभिनय से तृप्त हो जाता। सयाना होने पर मुझे इस बात से सुख मिलने लगा कि
जन्मदिन पर अनायास मुझे मेवा-मिष्टान्न उपलब्ध हो जाता है। मेरे लिए कठोर व्रत करने वाली मेरी माँ को मेरे जन्मोत्सव के लिए कुछ विशेष आयोजन नहीं करना पड़ा और न
व्रतबद्ध पत्नी को मेरे लिए अलग से कुछ करना पड़ता है। छठि पर्व के दिन हुगली के बाबूघाट पर गान-वाद्य से उल्लसित भीड़ देखकर कभी-कभी सुखद अनुभूति होती है कि
भोजपुर और मिथिला का पूरा संसार मेरा जन्मदिन मना रहा है। मेरे जैसे और भी बड़ भागी होंगे जिनका छठि पर्व के दिन जन्म हुआ होगा। मैं केवल अपना ही इतिहास जानता
हूँ और लोक-उल्लास को अपने पक्ष में मान कर अगरा उठता हूँ। माँ का व्रत फलप्रसू था कि पर्व के दिन ही मेरा जन्म हुआ और जन्मदिन पर मेवा-मिष्टान्न और उल्लास-भोग
का सहज सौभाग्य मिल गया।
अपने गाँव की छोटी नदी के तट पर छठि माता को निवेदित जगमगाते माटी के दीये की लव यानी मूर्त-पुत्र-स्पृहा की शोभा मेरे मन में आज भी बसी है। आज महानगर कलकत्ता
में मातृत्व-महिमा को अर्जित करने की आकुल आकांक्षा से हुगली के तट की ओर धावन करती निर्जला व्रत करनेवाली हजार-हजार नारी मूर्तियों को देखता हूँ। चौरंगी की
छाती को चीरते हुए, बड़ा बाजार की वाणिज्य-भीड़ को धकियाते हुए और व्यावसायिक क्षेत्रों के सड़ाँध और प्रदूषण-धूमायित चेहरे पर अपने गीत-मुखर कंठ से उल्लास की
वर्षा करते हुए छठि माता का व्रत करने वाली भीड़ हुगली के तट पर छा जाती है। व्यावसायिक आपाधापी से आहत-उदास हुगली की लहरें हुलास से थिरकने लगती हैं कि उन्हें
आत्मीय स्पर्श देनेवाला हृदय अभी भारत में जीवित है। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के इस पर्व की ठेठ देहाती मुद्रा को मुँह बिराते शहराती लोगों पर मेरी दृष्टि
पड़ती है और अनास्था के धक्के से उखड़ी उनकी जिंदगी की भयावह रिक्तता एकाएक मेरे सामने खड़ी हो जाती है। मन खिन्न हो जाता है तभी नारी कंठ से गूँजनेवाला छठि गीत का
एक टुकड़ा मेरे कानों से होकर मानस पर छा जाता है, 'पहिरना सामा देई पिअरिआ चल अदिति दुआर। ...जीरवा से बान्हबी खोंइछवा, खोंइछा गमकत जात्। ...खोंइछा गमकत जाई।'
उल्लास-मुखर मांगलिक अनुगूँज मेरी खिन्नता को चट से तोड़ देती है और चौरंगी की चमक को अँगूठा दिखाता मेरा देहाती मन उतान हो जाता है। पर्व की गत्वर शोभा में
डुबकी लगाने मैं व्रती भीड़ के साथ बाबूघाट की ओर धावन करने लगता हूँ, जैसे भारतीय लोकजीवन के साथ पर्व धावन करते आ रहे हैं। मनुष्य के रस लोक की रक्षा में
पर्वों की अखंड यात्रा की विधायक भूमिका रही है। भारतीय पर्व भारत की स्वकीय पहचान को उजागर करते हैं। पर्वों के साथ जुड़ा तपोल्लास भारतीय संस्कार-बीज की रक्षा
की आकुल अभीप्सा का संकेत देता है। संस्कार-बीज सुरक्षित रह सके तो हमारी पहचान मिटाने को सक्रिय विजातीय लोक के अंधड़ का औद्धत्य हार जाएगा। भारत मर नहीं सकता।
कदाचित इसी आस्था-प्रेरणा के चलते मेरे जैसे हजार-हजार लोग महानगर में प्रवास करते हुए भी गँवई वातावरण को जिलाये जा रहे हैं, अपनी नाना दिक्कतों के बावजूद
ग्रामीण तीज-त्योहार से मुँह नहीं फेर रहे हैं, मगर पीड़क तथ्य यह है कि गाँवों में तीज-त्योहार का रूप उदास होता जा रहा है, जैसे ग्रामीण रिश्ते म्लान होते जा
रहे हैं। ग्रामीण पर्वों को शहरों में उल्लसित देखकर मुझे एक विचित्र दशा का ध्यान हो आता है कि शहरों में प्रवास कर रहे गाँव के लोग ठेठ गँवई अंदाज में खुलकर
मिलते-बतियाते हैं जबकि गाँवों में व्यवहार की सहज ऋजुता बिला गई है। नागर जीवन की कृत्रिमता और आपाधापी के बीच गँवई वातावरण को जगाकर हम अपने जीवन के मूल
आस्वाद से जुड़े रहना चाहते हैं जबकि गाँव अपना मूल स्वरूप छोड़ता जा रहा है। माँ के इशारे पर मुझे गमछे की झोली बनाकर छठिघाट पर भीख माँगते कभी संकोच नहीं हुआ,
मगर ऐसे बहुत सारे लोगों को जानता हूँ जिन्हें अपने हवा-पानी और बोली-बानी से इतना परहेज है कि विशिष्टता-ग्रंथि से आक्रांत होकर विजातीय भाषा को चबा-चबाकर
बोलते हैं। मेरा विश्वास है कि जो अपने हकीकत से कतराता-लजाता है, उसे लोक-यात्रा का सुख नहीं मिलता।
आज सुख दुर्लभ हो गया है। मुझे लगता है, क्षेत्र एक अंश तक अभिशप्त हो गया है। संस्कार-संपन्न क्षेत्र काँट-कुश से भर गया है। लगता है, छठि माता के रूप में
मातृ शक्ति विलाप कर रही है कि मेरे घाट पर दूब उग आई है। नारी अपनी शोभा बिगाड़ रही है कि मातृत्व की गरिमा से दूर भागती जा रही है; अर्थात अपनी महिमा से, शक्ति
से उदासीन होकर गलत राह पर चलने लगी है। प्रदर्शन की नंगी होड़ के चलते नारी श्रीहीन होती जा रही है। नई जीवन-शैली के चाकचिक्य से वंचित ग्रामीण नारी अपने नाना
अभावों के कारण अनलंकृत और फूहड़ लग सकती है, किंतु उसके हृदय में आस्था का एक बड़ा अंश अभी भी जीवित है और भारत की पुरानी धारणा कि मातृत्व-गौरव से मंडित होने
में ही नारी की सार्थकता है। उसे विजातीय विकृत की अंधी अनुकृति और चारित्रिक ढाही से बचाए हुए है, वह आस्था पूर्वक अपने तीज-त्योहार से जुड़ी है। भारत में नारी
का निपूती होना, जननी न बन पाना, चरम दुर्भाग्य समझा जाता है। इसलिए सनातन काल से भारत में सौभाग्यार्जन की कठोर साधना चल रही है। छठि माता का व्रत उसी का एक
रूप है। मानवीय प्रवाह को गतिशील बनाए रखने के लिए, व्यष्टि को समष्टि में विस्तारित करने के लिए भारतीय नारी सनातन काल से दैवी सत्ता को श्रद्धा-दीप निवेदित
करती आ रही है। इस महत मातृ-क्षेत्र की एक दिशा को आधुनिकता की विकृति के स्पर्श ने श्रीहीन बना दिया है, लेकिन छठिव्रत की तप-निष्ठा संकेत देती है कि क्षेत्र
की धवलता अभी सुरक्षित है।
छठि माता का व्रत सूर्योपासना का व्रत है। सूर्य सृष्टि की आदि कुक्षि है। मुझे लगता है, सूर्योपासना के माध्यम से मातृत्व-स्पृहा आदि कुक्षि की आराधना करती है।
सृष्टि की आदिशक्ति सूर्य जीवन की वर्द्धमानता और जीवंतता का भी मूल आधार है। भारतीय मनीषा ने सूर्य की महत्ता को शुरू में ही समझ लिया था। भारतीय वांगमय के
प्राचीनतम अध्याय में सूर्य-महिमा की विवृति है, और सनातन काल से भारत में सूर्योपासना की परंपरा चल रही है। लोक-मानस में यह आलोक समा गया है कि जन्म और जीवन का
मूल आधार सूर्य ही है। सूर्य जाग्रत देवता है। यह कुल-देवता, ग्राम-देवता, जनपद-देवता, प्रदेश-देवता और देश-देवता से बहुत ऊँचा देवता है। अपनी विराट व्याप्ति
में विश्व-देवता से भी बड़ा है। सूर्योपासना उस विराट अग्नि की उपासना है, जिसके स्पर्श से कुल, जाति, धर्म, सम्प्रदाय, देश, प्रदेश का सारा अभिमान जलकर क्षार हो
जाता है बच जाती है एक देव-अग्नि जिसका नाम है सविता। निरुक्तकार यास्क ने इसे स्पष्ट करते कहा है, 'सविता सर्वस्य प्रसविता'। सविता अर्थात सबका प्रेरक। इसलिए
मुझे लगता है, सूर्योपासना का सीधा अर्थ है - हर प्रकार की लघुता से मुक्त होने की सक्रिय आकांक्षा और विराटता से जुड़ने की आकुल अभीप्सा। छठि व्रत इसी महत दिशा
की ओर इंगित करता है।
मत्स्य पुराण में वर्णित सूर्य-संदर्भ से सूर्यमंडल में निवास करनेवाले जीव-जंतुओं की जानकारी होती है। भिन्न काल और ऋतु में भिन्न-भिन्न देवता, ऋषि और जीव-जंतु
सूर्य-मंडल में उपस्थित रहते हैं। शरद ऋतु में अर्थात आश्विन और कार्तिक में सूर्य-मंडल में पर्जन्य और पूषा नामक देवता निवास करते हैं। महर्षि भरद्वाज और गौतम
इसी काल में सूर्यमंडल में पड़ाव डालते हैं। चित्र सेन और सुरुचि नामक गंधर्व, विश्वासी और घृताची नामक दो शुभ लक्षणा अप्सराएँ, ऐरावत और धनंजय नामक नागराज,
सेनजित तथा सुषेण नामक सारथि तथा नायकचार और बात नामक दो राक्षस शरद ऋतु में सूर्यमंडल में निवास करते हैं। इन विविध शक्तियों की उपस्थिति से सूर्य-मंडल
संपन्नता-दीप्ति से दमकता रहता है। छठि व्रत का यही काल है। मुझे लगता है, छठि माता का व्रत करनेवाले कार्तिक शुक्ल षष्ठी और सप्तमी को सूर्याघ्र्य द्वारा
सूर्यनारायण की इसी अनेकमुखी शक्ति-दीप्ति का आह्वान करते हैं।
लाख-लाख रंग-रूपों में गत्वर प्रकृति-शोभा सूर्य का ही प्राणोच्छवास है। सूर्योपासना के द्वारा भारतीय मानस बहुधा धाराओं में प्रवाहित शोभा-शक्ति की समग्रता की
कामना-प्रार्थना करता है। छठि माता का व्रत केवल कुक्षिजागरण का ही नहीं, बल्कि मातृ-महिमा के आह्वान का व्रत है। भारतीय नारी केवल जननी बनकर ही संतुष्ट नहीं हो
जाती, वह सृष्टि के अनेकमुखी सौंदर्य और शक्ति से अपनी रचना को सँवारने, संपन्न करने के लिए व्याकुल रहती है। वह जानती है, इस स्पृहा की पूर्ति के लिए क्षेत्र
का केवल उर्वर होना ही पर्याप्त नहीं है, उसे मातृ-संस्कार से पुनीत रखना भी जरूरी है। क्षेत्र के दोषग्रस्त होने पर फसल दूषित हो जाती है। आज की निस्तेज फसल
से खिन्न लोग और आबोहवा के दोष को न देखकर फसल को ही कोसने लग जाते है। विचार का यह सही तरीका नहीं है। सही ढंग से विचार करने पर स्थिति सही रूप में सामने
खुलेगी कि क्षेत्र एक अंश तक दूषित हो गया है, कि संस्कार को पोषण देने वाला मुख्य केंद्र परिवार और समाज प्रदूषित हो गया है। अपनी फसल की बहुविध समृद्ध के लिए
माता ने एक अंश तक तपना छोड़ दिया है। घर-आँगन को विद्वेष की तीव्र लहरें अपने प्रहार से तोड़ने लग गई हैं। कुसंस्कार को सामाजिक सम्मान मिलने लग गया है।
संस्कार-सजग लोगों की व्यावहारिक दुर्दशा मूल्य-विमुखता को उत्तेजना दे रही है। मूल्यों के पोषक और प्रहरी दुनिया के तमाम महापुरुषों की जीवन-कथा इस तथ्य का
उद्घाटन करती है कि वे पुनीत क्षेत्र की फसल हैं, उनके चरित्र-निर्माण में माता की सर्वोच्च भूमिका रही है। भगवान बुद्ध, शंकराचार्य, ईसा मसीह, मुहम्मद साहब,
रामकृष्ण देव और महर्षि रमण जैसे दैवी पुरुषों की माता ने छठि माता का व्रत नहीं किया था, लेकिन छठि माता का व्रत करने वाली मेरी माँ और असंख्य लोगों की माँ से
बढ़कर उन्हें अपने पुत्र की बढ़ंती के लिए तपना पड़ा होगा। उनकी रचना और तपस्या महत थी, इसलिए ऐसे विशिष्ट आलोक को खड़ा कर सकीं, जिसने मनुष्य जाति को घेरे अंधकार
को पराजित कर दिया। जिसकी तपस्या बड़ी होती है, उसकी रचना महत होती है। आज अच्छी फसल नहीं उग रही है तो इसका मुख्य कारण है कि तप घट गया है, क्षेत्र को किसी अशुभ
बयार का स्पर्श लग गया है छठि माता का व्रत आश्वासन देता है कि तप क्षीण भले ही हो गया है, मर नहीं गया है। और उसे दीप्त करने के लिए हजार-हजार लोग सक्रिय हैं।
छठि व्रत के रूप में क्षेत्र-शोधन की क्रिया चल रही है। साधना जब परिपक्व होगी तो निर्मल फसल उगेगी। सच्चाई और साधुता को तब सामाजिक मान्यता मिलेगी अर्थात गलत
राह छोड़कर समाज सही राह पकड़ लेगा और अंतर्वैयक्तिक सम्बंधों की संवेदना पुनर्जीवित होगी और तभी समाज की संस्कृत-यात्रा गत्वर होगी। मातृ-महिमा शीर्ष महत्व
प्राप्त करेगी। मातृत्व सार्थक होगा। तब छठि माता को विलाप नहीं करना पड़ेगा।
छठि माता मुझे सूर्य-जननी अदिति माता जान पड़ती हैं। लगता है, छठि माता की पूजा अदिति माता की पूजा है। मार्कंडेय पुराण में कथा आती है कि महर्षि कश्यप की पत्नी,
देवताओं की जननी अदिति ने आसुरी शक्ति के औद्धत्य-उत्पात से विपन्न अपने पुत्रों की दीन-दशा देखी तो उनका मातृत्व बैचेन हो उठा। अपने पुत्रों के मंगल अर्थात
दैवी संपदा की सुरक्षा के लिए अदिति ने सूर्य का कठोर व्रत किया। अदिति के तप-निष्ठा से प्रीत होकर सूर्य नारायण ने अनुग्रह किया कि सूर्य की सुषुम्ना किरण,
जिसमें सहस्त्र किरणें, अंतर्भुक्त थीं, देव-माता अदिति की कोख में प्रविष्ट हुईं और यथा समय अदिति ने 'मार्तण्ड' को जन्म दिया, और दैवी संपदा का उद्धार हुआ।
माता अदिति से ही मातृ-तपस्या की परंपरा आविर्भूत जान पड़ती है। दैवी और आसुरी भाव का संघर्ष बराबर चलता रहता है। दैवी संपदा यानी मानव-मूल्य जब कम जोर पड़ने लगता
है, तब मातृ-तपस्या के रूप में अदिति भाव जाग्रत होता है। और असुरवाहिनी उसके ताप से विचलित होकर घुटने टेक देती है। अदिति माता ही छठि माता हैं। छठि माता का
व्रत करने वाली माता आसुरी शक्ति के प्रतिरोध में तपस्यारत हैं।
मुझे छठि व्रत दैवी संपदा के आह्वान का व्रत लगता है। छठि पर्व के धवल रूप में अदिति माता की तप-परंपरा जीवित है, तभी खोंइछा की गमक जीवित है। मातृ-शक्ति
तप-विरत हो गई होती तो अब तक हम पूरे पशु बन गए होते। हमारे पाशवत-आवेग को मातृ-तपस्या शमित और संस्कृत करती रही है। माता अदिति की तप चेतना जहाँ म्लान हो गई
है, वहाँ मातृत्व घट गया है, क्षेत्र दूषित हो गया है और दैवी संपदा के जागरण की संभावना कमजोर हो गई है। तप व्रत में तपने वाली हजार-हजार नारी-मूर्तियों को
देखता हूँ तो मन आश्वस्त होता है कि कि अदिति-भाव अभी जीवित है। निरवलंब और निरुपाय लोगों के हृदय में अपनी सहज अनुग्रह-वर्ष द्वारा आशालता का उल्लास रचने वाली
माता टेरेसा मुझे मार्तण्ड-माता अदिति की ही प्रतिमूर्ति लगती हैं। महाराष्ट्र के वन में जाग्रत मानव-मूर्ति के विकृत मोचन यज्ञ के पुरोधा करुणामूर्ति बाबा आमटे
और वाराणसी के गंगा-तट पर कुष्ठ-रोगियों की सेवा में समर्पित औघड़ महात्मा अवधूत भगवान राम मुझे सूर्यनारायण की भूमिका में सक्रिय दिखाई पड़ते हैं।
महानगर की भीड़ में रहता हूँ, गाँव से आत्मीय संबंध है। गाँव-नगर की आज की जिंदगी को बहुत करीब से देखता-समझता हूँ कि अनास्था-अभिशाप ने अपने अशुभ स्पर्श से
हमारे उल्लास-छंद को लंगड़ा बना दिया है। खोंइछा की गमक मंद हो रही है। एक वर्ग है जिसका खोंइछा खाली ही रहता है। और एक वर्ग है जो कृत्रिम जीवन-शैली में जीने का
अभ्यासी होने के कारण खोंइछा का अर्थ ही भूलता जा रहा है। यह वह वर्ग है जो अदिति-चेतना से विच्छिन्न है और अपनी जीवन-चर्या द्वारा संत्रास की लहरों को निरंतर
नेवता देता रहता है। मुझे छठि मैया का वह गीत याद आता है जिसमें अर्घ्य जुठियाने वाले सुग्गे का वृत्तांत है। छठि व्रत करनेवाली माता द्वारा श्रद्धा रचित
सूर्यार्घ्य को ढीठ सुग्गे ने जुठिया दिया था। सुग्गे को कठोर सजा भोगनी पड़ी थी। मनुष्य जाति के रस-लोक पर धावा बोलने वाले अभाव और अनास्था-अभिशाप को भी दंड
मिलना चाहिए। छठि व्रत करने वाली माताओं को आदित्य-पूजन करते जब मैं देखता हूँ, मुझे लगता है, वे उस ज्योति की मनःकामना से तप रही हैं जो आस्था-आलोक का बीज-वपन
कर हमें नाना अभावों और क्षुद्रताओं से उबारेंगी और हमारा लँगड़ा उल्लास स्वस्थ होकर सहज नृत्य शुरू करेगा। खाली खोंइछा भरेगा। खोंइछे की गमक मरेगी नहीं।